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Saturday 22 August 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा ---बारहवाँ दिन :- नवींढांग से लिपुलेख, तकलाकोट

 
लिपुलेख  की ऊँचाई 5334 मीटर (17500 फ़ीट)

कुल रास्ता : - 9 कि.मी  पैदल
समय      : -  5.30 घंटे लगभग 

सुबह डेढ़ बजे चाय आ गयी। ठंड इतनी कि रजाई में से मुँह निकालने का जी न था, पर उठना तो था, सो सभी यात्रियों ने एकदम बिस्तर छोड़ दिया। दैनिकचर्या के साथ तैयार होने लगे। कु.मं. के कर्मचारियों की कर्तव्यपरायणता का तो जबाव ही न था उन्होंने यात्रियों के उठने से पहले ही गर्म पानी कर दिया था। सभी ने गर्म पानी से हाथ-मुंह धोए। 

इनर  से लेकर विंड-चीटर तक पाँच लेअर्स में कपड़े, हाथ-पैरों में डबल गल्व्ज़ और जुराबें, सिर पर मंकी कैप ले ली गई। सभी ने शिव स्तुति की, भोलेनाथ के जयकारे लगाये और अपने दिलो में कैलाश दर्शन लिए ढाई बजे पैदल चलने वालो ने कदम बड़ा दिए। मेरा पोर्टर भी आ गया था। वह अपने साथ आज घोडा ले कर आया मेरे पूछने पर बताया कि ये घोडा उस के चाचा का है।

सभी यात्री एक हाथ में लाठी एवं दूसरे हाथ में बड़ा टार्च लेकर चल रहे है। ऐसा लग रहा है जैसे रात में मशाल जूलूस निकला हो। पूरी यात्रा में बस इसी पल के फोटो नहीं निकाल सका। अंधेरे में माइनस टेम्प्रेचर में  हवा के झोंकों के बीच जूतों और बेंतों की टक-टक, नाक की सूं-सूं सुनसान दर्रे को गुंजित कर रही थी। दूर ऊँचाई पर टॉर्च की रोशनी ऊपर-नीचे चलने के कारण हिलाते हुए आगे बढ़ते तीर्थ-यात्री मानों पैदल स्वर्ग जा रहे हो। :-)
उस दिन जवान और दो डॉक्टर्स मैडिकल-इक्यूपमेंट्स, ऑक्सीज़न-सिलेंडर्स और दो पोर्टेबल- स्ट्रेचर के साथ यात्रियों के बिलकुल साथ-साथ चल रहे थे। किसी को कोई परेशानी न हो हर पल का ध्यान रख रहे थे। बार-बार हाल पूंछते हौंसला बढ़ाते साथ चल रहे थे।
 
चलते-चलते कुछ दूरी पर एक टूटे से चबूतरे के पास हम लोग रुके और पीछे रह गए साथियो का इंतज़ार किया। इतनी देर में घोड़े वाले यात्री भी हमारे साथ आ मिले।  घोड़े पर  बड़ा ही सचेत हो कर बैठना पड़ता था।  रात में घोड़े पर नींद बहुत आती है और गिरने की पूरी सम्भावना होती है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे ठंड और हवा दोनों बढ़ती जा रही थी और सांस फूलने की वजह से रूक-रूककर पैदल चलना कठिन होता जा रहा था। मेरे पोर्टर ने मुझे घोड़े पर बैठने के लिए कहा पर मैंने उसे मना कर दिया लेकिन बॉर्डर से 2 km पहले मुझे घोड़े पर बैठना पड़ा।

हम लिपु बॉर्डर से आधा कि.मी.पहले रुक गए। यही पर हमें पैदल यात्रियों का इंतज़ार करना था। समय काटना कठिन हो रहा था। नींद से आँखे बोझिल हो रही थी। पहाड़ों पर जल्दी दिन निकल आता है। आसपास पौ फटनी शुरु हो गयी। धीरे-धीरे धुंधलका कम होने लगा था। अब सब साफ़ दिखने लगा था। जैसे ही दिन निकला फोटो खींचने शुरू कर दिए गए। पैदल यात्री धीरे धीरे आ रहे थे। धीरे धीरे हम लोगो बॉर्डर की तरफ चलना शुरू किया। 7 बजे तक हम बॉर्डर पर थे। पहाड़ियों पर लगे झंडे सीमा बना रहे थे, वरना पता भी नहीं चल रह था कि कौन सी हद से कौन सा देश शुरु होता है। सब एक सा …मनुष्य सीमा बनाता है पहाड़ और धरती नहीं। सब चीनी अधिकारीयों का इंतज़ार कर रहे थे। सौभाग्य से आज ज़्यादा तेज हवा नहीं थी।

लिपुलेख दर्रा के बारे में 

लिपुलेख ला या लिपुलेख दर्रा हिमालय का एक पहाड़ी दर्रा है जो नेपालके दारचुला जिल्ले को तिब्बत के तकलाकोट (पुरंग) शहर से जोड़ता है। यह प्राचीनकाल से व्यापारियों और तीर्थयात्रियों द्वारा भारत ,नेपालऔर तिब्बत के बीच आने-जाने के लिये प्रयोग किया जा रहा है। यह दर्रा भारत से कैलाश पर्वत व मानसरोवर जाने वाले यात्रियों द्वारा विशेष रूप से इस्तेमाल होता है। 

सीमा पर जवानों का जमावड़ा था। हमारी ओर हमारे सशस्त्र जवान जमे हुए थे। हम वही पत्थर की शिलाओं पर बड़ी मुश्किल से संतुलन बनाकर बैठ गए।  हमारे साथ चल रहे पोनी एवं पोर्टर यही पर रूक गये। उन्हे उन की पेमेंट का आधा  भुगतान किया  गया एवं यात्रा से वापसी पर पुनः आने को कहकर मैंने अपने पोर्टर से बैग ले लिया। तिब्बत की सीमा रेखा के अंदर जाने तक आईटीबीपी के जवान हमारे साथ थे। चीनी अधिकारी ऊपर नहीं आये। हम लोगो ने अब बॉर्डर पार कर चीन -अधिकृत तिब्बत में प्रवेश किया। जब तक हम सब तिब्बत की सीमा में प्रवेश किए वे सब वहीं खड़े किसी न किसी रुप में हम सब की मदद करते रहे। हमें भी उनसे विदा लेना द्रवित कर रहा था। हम सब उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुए यात्रा पूरी करके पुनः मिलने की इच्छा लिए आगे बढ गए। वे भी भावभिवोर होकर हाथ हिलाते हुए विदा कर रहे थे …  जब हम सीमा क्रॉस कर रहे थे तो कुछ जवान कहते सुने गए ’अब हम याद आएँगे।’ सच जैसे ही सीमा छोड़ी अपने को अकेला महसूस किया। न सिपाही थे न पोनी-पोर्टर। कोई मददगार नहीं। कोई राह दिखाने वाला नहीं।
 
चीनी सीमा में यात्रा एकदम ढ़लान वाला है। रास्ता पूर्णताः पथरीला हैं, पेड़-पौधे आदि का नामो निशान नही है। बंजर पथरीला संकरा ढ़लान है, चीन साइड में बर्फ थी। बर्फ पर चलना काफी मुश्किल होता है। यात्रियों के पैर स्लिप हो रहे थे। मैंने बड़ी मुश्किल से उस  चीन साइड के बर्फीले रास्ते और ग्लेशियर को पार किया। ग्लेशियर पार करते ही वहाँ पर जीप खड़ी थी। जो यात्रियों को बैठा कर 3 km नीचे हमारी बस तक पहुँचाने के लिए खड़े थे। लेकिन मैंने , एल.ओ साहिब और छैना राम जी ने वो तीन km पैदल पार कर किये।  

सभी यात्री भोले की जय बोलते हुए फिसलते-लुड़कते हुए  चलकर जहाँ हमें लेने आयी बस खड़ी थी वहाँ पहुंचे, वहाँ चीनी अधिकारी मौजूद थे चीनी अधिकारी अपनी लिस्ट से एक एक का नाम बोलकर बुला रहे थे और नाम और पासपोर्ट के साथ चेहरा चहेरे को मिला कर टिक कर रहे थे। सामान्यतय यह प्रक्रिया ऊपर लिपु बॉर्डर पर होती है। यही पर हमारे गाइड 
 जिसका नाम गुरु था ने अपनी सहयोगी डिक्की  का परिचय दिया और बताया कि हम कस्टम-चैकिंग के लिए जा रहे थे। यात्री-गणना के पश्चात बस चल पड़ी।

हम लोग बस से चीन के निकटम शहर तकलाकोट (पुरंग) के लिए रवाना हुए, मिट्टी के पहाड़ी-पठारी-मार्ग पर चढती उतरती धूल उड़ाती बस में बैठकर सुबह से थका शरीर बहुत कष्ट महसूस कर रहा था। 
बस बॉर्डर के मिलट्री-एरिया से गुज़र रही थी सो गुरु ने फोटो बिलकुल न लेने और कैमरे बंद रखने की हिदायत दी। बस बॉर्डर के मिलट्री-एरिया से गुजरते हुए तकलाकोट में प्रवेश किये। बस तकलाकोट के कस्ट्म ऑफ़िस में दाख़िल हुयी हम सभी उतर कर कस्टम ऑफिस में अंदर गए। हमने इमीग्रेशन फार्म भरा, फिर लाइन में लगकर अंदर गए जहाँ सामने दीवार पर इन्फ़्रा-रेड कैमरा लगा था, सभी का टेंप्रेचर रिकॉर्ड हो रहा था। बैल्ट-पाऊच और हैंडबैग्स भी एक्सरे मशीन से गुजारे और सारी औपचारिकताएं पूर्ण करते हुए हम बस में आ कर बैठ गए।

पुनः बस में बैठकर तकलाकोट शहर में पुरंग गेस्ट-हाऊस की ओर चल पड़े। यहाँ नए और पुराने ब्लॉक में यात्रियों को रुकाया गया था। नया ब्लॉक कही ज़्यादा बेहतर था, हमे पुराना ब्लॉक मिला पुराना ब्लॉक ज़्यादा साफ़ नहीं था। परन्तु टीवी, गीज़र लगा हुआ था। हमारा सामान भी आ गया था। उसे उठा कर अपने कमरे में लाये और किसी तरह फ्रेश और स्नान कर के हम लोग तैयार हुए तो खाने का समय हो गया। 

हम लोग भोजन-कक्ष में पहुँच गए। बड़ा सा हॉल जिसमें सात बड़ी गोल मेज लगीं थीं और चारों ओर कुर्सियाँ लगीं थी। सामने किचन का दरवाज़ा था। जहाँ एक मेज पर उबले चावल और बंदगोभी गाजर की सब्जी, और भी एक २ सब्जिया थी। पास में ही खाली बाऊल, प्लेटें और चम्मच थे। भोजन सामान्य और ठीक था, चीन साइड में जो उम्मीद की थे उस से ज़्यादा ही था। भोजन से पहले हमारे गाइड गुरु  ने हमें आगे की यात्रा के बारे में बताया। कुछ यात्रियों ने गुरु की बातों को अनसुना सा कर दिया। हमें 801 डॉलर चीन सरकार को देने थे। फाइनेंस कमेटी के पास सभी ने डॉलर जमा करवा दिए। जिन यात्रियों पास चीन करेंसी युआन नहीं थी, उस के लिए गुरु ने अगले दिन सुबह बैंक चलने के लिए बोला।  

खाना खा कर थोड़ा आराम कर के मार्किट घूमने चले गए शाम हो गयी थी। 

  
 
इस यात्रा को आरम्भ से पढने के लिये यहाँ क्लिक करें। 
 

 
 



लिपुलेख से 1 km पहले 


लिपुलेख से 1 km पहले 


लिपुलेख से 1 km पहले 







मैं और मेरा पोर्टर 








कोचर जी और वर्मा जी 


लिपुलेख से शानदार नजारा 


बॉर्डर, बाईं तरफ भारत दाईं तरफ चीन 


बॉर्डर पार कर के ग्लेशियर पार करते हुए 


बॉर्डर पार कर के ग्लेशियर पार करते हुए 


दूर हमारी बस खड़ी हुई और पैदल जाते हुए यात्री 


तकलाकोट में हमारा होटल 


 

 

Monday 17 August 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा ---ग्यारहवाँ दिन :- गुंजी से कालापानी, नवींढांग(ऊँ पर्वत)


कालापानी की ऊँचाई 3600 मीटर,
नवींढांग की ऊँचाई 4250 मीटर
 
कुल रास्ता : - 19 कि.मी  पैदल 
समय       : - 10.30 घंटे लगभग 

सुबह 3.30 बजे नींद खुल गई। नित्य कर्मा से निवृत होकर मैंने स्नान किया और जल्दी से तैयार होकर, चाय पी कर 5.15 बजे कालापानी के लिए निकल गया। मंदिर में शीश झुकाकर और वंदना करके सभी भोले के नाम का जयकारा लगाकर जवानों के साथ चल दिए। गंुजी से चीन सीमा तक यात्रियों के साथ आगे-पीछे एवं बीच में आईटीबीपी के जवान चलेंगें। जवानों ने इमरजेंसी के लिये साथ में आक्सीजन सिलेंडर भी रखे हुए थे। 

जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, हरियाली कम होते जा रही थी। केवल पत्थर, चट्टान ही दिखाई दे रहा था। प्राकृतिक धरोहर को आँखों में भरते हुए काली नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ते  जा रहे थे। लगभग ३ घंटे चलने की बाद हम काली नदी के उदगम स्रोत पर बने कालीमाता के मंदिर पर पहुँच गए। काली नदी में बने पुल से नदी पारकर कालापानी पहुंचे। सरोवर के किनारे रास्ते पर चारों ओर रंगीन पेपर की झंडियाँ लगायी हुयीं थीं। छोटे-छोटे पत्थरों को लाल रंगकर उनसे सरोवर के जल में ऊँ लिखा हुआ था।

काली नदी के बारे में

काली नदी भारत के उत्तराखंड राज्य में बहने वाली एक नदी है। इस नदी का उद्गम स्थान हिमालय में 3600  मीटर की ऊँचाई पर स्थित कालापानी नामक स्थान पर है, जो उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले में है। इस नदी का नाम काली माता के नाम पर पड़ा जिनका मंदिर कालापानी में लिपु-लीख दर्रे के निकट भारत और तिब्बत की सीमा पर स्थित है। अपने उपरी मार्ग पर यह नदी नेपाल के साथ भारत की निरंतर पूर्वी सीमा बनाती है। यह नदी उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में पहुँचने पर शारदा नदी के नाम से भी जानी जाती है।
काली नदी जौल्जिबि नामक स्थान पर गोरी नदी से मिलती है। यह स्थान एक वार्षिक उत्सव के लिए जाना जाता है। आगे चलकर यह नदी, कर्नाली नदी से मिलती है और बहराइच जिले में पहुँचने पर इसे एक नया नाम मिलता है, सरयु और आगे चलकर यह गंगा नदी में मिल जाती है। पंचेश्वर के आसपास के क्षेत्र को 'काली कुमाँऊ' कहा जाता है। सिंचाई और पन-विद्युत ऊर्जा के लिए बनाया जा रहा पंचेश्वर बांध, जो नेपाल के साथ एक संयुक्त उद्यम है, शीघ्र ही सरयू या काली नदी पर बनाया जाएगा। काली नदी भारत और नेपाल की सीमा रेखा बनकर दोनों को पृथक करती है। 
 

मंदिर के सामने एक पहाड़ में बहुत ऊँचाई पर एक गुफ़ा थी। जहां पर आईटीबीपी द्वारा पहचान हेतु झण्डा भी लगाया गया है। उक्त सुराख को ‘‘व्यास गुफा” बताया गया। इसी गुफा में महामुनि ब्यास  द्वारा वर्षों तपस्या की गयी है।

ऊँचे-ऊँचे पर्वत शिखरों से घिरे काली मंदिर में भजनों का संगीत बज रहा था। मंदिर में आईटीबीपी के जवानों द्वारा आलू चिप्स एवं चाय की व्यवस्था की गई थी। यात्रीगण वहां पहुंचते जा रहे थे एवं चिप्स के साथ चाय का आनन्द ले रहे थे।

हम सभी ने जूते उतारकर हाथ-मुंह धोकर अंदर प्रवेश किया। एक बड़े से कमरे में सामने दो छोटे कक्ष थे जिनमें एक में माँ काली की प्रतिमा विद्यमान थी तो दूसरे में भगवान शंकर जी की। मंदिर को सलीके से सजाया हुआ था। रंगीन कालीन बिछा हुआ था। ढोलक मंजीरे और चिमटा इत्यादि रखे हुए थे जिनसे पता चलता था कि यहाँ भी कीर्तन होता रहता है। देखकर मन मंत्र-मुग्ध हो गया। मंदिर के बाहर बड़ा सा कुण्ड बना हुआ है जिसमें मंदिर के अन्दर से पानी बहता हुआ आकर एकत्र होता है। फिर वही पानी बहते हुए आगे जाकर नदी में मिल जाता है यहां से यह नदी कालीनदी कहलाती है। बाहर एक अन्य कक्ष में हनुमानजी की प्रतिमा थी। लगभग एक घंटा हम ने यहाँ बिताया। 


 

यह जगह इतनी सुन्दर थी कि यहाँ से जाने का दिल नहीं कर रहा था। 

शनिवार के दिन काली माता के दर्शन कर, प्रसाद ग्रहण कर इमीग्रेशन के लिए प्रस्थान किया और फॉर्म भर कर, पासपोर्ट पर इमीग्रेशन करवा कर, कालापानी कैंप में आये। जहा बुरसँ के फूलो का शरबत ताज़गी देने के लिए तैयार थे। यही पर हम लोगो ने नाश्ता किया और थोड़े विश्राम के बाद नवींढांग के लिए प्रस्थान किया।

आगे का वातावरण ठंडा होने लगा था, कालापानी से नबीढ़ांग की दूरी 9 कि.मी है। नवीढांग के रास्ते में हरियाली कम दिखी किन्तु घाटी में रंग-बिरंगी फूल जरूर दिखे। ऊँ पर्वत के दर्शनों का लोभ लिए सभी जल्दी से जल्दी नवींढांग पहुचना चाह रहे थे। नवीढ़ांग के रास्ते में लगभग चारों तरफ पहाड़ी चोटी दिखलाई दे रही थी। जिसके आसपास काफी कोहरा भी था। लगभग 3.30 बजे मैं ‘‘नवीढ़ांग” पहुंच गया।
यहाँ पर मौसम साफ़ नहीं था।  ऊँ पर्वत  बादलों में छिपा हुआ था।  

हम  टकटकी लगाये ऊँ पर्वत के पूरे दर्शनों के अभिलाषा लिए बैठे रहे परन्तु सिर्फ थोड़े से  दर्शन हुए और शाम को वह भी खत्म हो गये।   
 
सात बजे रात का खाना लग गया क्योंकि अगले दिन की यात्रा बहुत कठिन थी और अगले दिन सुबह दो बजे प्रस्थान करना था इसलिए रात को जल्दी सोना था। कल  लिपुलेख पास पार करके तिब्बत में प्रवेश करना था। लिपुलेख का मौसम बहुत थोड़ी देर सुबह लगभग सात बजे (दो/तीन घंटे) तक ही ठीक रहता है। उसके बाद वहाँ बर्फीली आंधियाँ और बारिश होने लगती है। यात्रियों को निर्धारित समय-सीमा के अंदर ही लिपुलेख पास पार करना पड़ता है।  भोजन से पहले एलओ ने छोटी सी मीटिंग की। अगली सुबह सभी से कई लेअर्स में कपड़े पहनकर सिर से पैर तक ढकने और रैनकोट, टॉर्च और ड्राई-फ्रूट्स साथ रखने के लिए कहा। पोनी पर चलने वालों को ठंड से बचने के लिए विशेष ध्यान देने के लिए कहा क्योंकि पैदल चलने वाले यात्रियों को चलने से गर्मी आ जाती है पर पोनी पर हवा बहुत लगती है।
 
चीनी अधिकारियों द्वारा 7.30 बजे भारतीय समय के अनुसार (चीन का समय हम से 2.30 घंटे आगे है।) सुबह सीमा पार कराने का समय निश्चित किया गया है। इसलिए समय का ध्यान रखते हुए कल पैदल यात्री 2.00 बजे (रात के) तथा घोड़े वाले यात्री 3.00 बजे (रात को)अपनी-अपनी यात्रा प्रारंभ करेंगे तद्नुसार यात्री तैयार रहें। यहाँ पर मैंने अपने कैमरे का मेमोरी कार्ड निकाल लिया और दूसरा नया मेमोरी कार्ड डाल दिया। ऐसा सिर्फ गुंजी में दी गई चेतावनी की वजह से किया गया।  अगले दिन के रोमांच को मन में रखकर हम जल्दी सो गए।





अगली  पोस्ट में इंडियन - चाइना बॉर्डर पार करेगें 

इस यात्रा को आरम्भ से पढने के लिये यहाँ क्लिक करें।


  

गुंजी में 










काली माता मंदिर 


ब्यास गुफा ज़ूम कर के खींचा गया फोटो 

दूर ब्यास गुफा 



काली माता मंदिर 

काली माता मंदिर के अंदर का दृश्य 


भोले बाबा 


माँ काली 







नवींढांग जाते हुए 

पांडव पर्वत 

 रास्ते में रंग बिरंगे फूल 





नवींढांग में ओम पर्वत 

नवींढांग में छोटा सा मंदिर 
 
नवींढांग