Pages

Sunday 27 September 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा----सत्रहवाँ दिन---ज़ुंजुनहुई पुक से कुगु




कुगु की ऊंचाई 4600 मीटर लगभग 
कुल रास्ता : 5 कि.मी. पैदल + 125 कि.मी. बस से 


सुबह 4 बजे उठ गये और सामने खुले मैदान में नित्य क्रिया से फारिग हो कर ब्रश किया, चाय और नाश्ता कर के 5:30 बजे तक चलने को तैयार हो गये। शिव वंदना और जयकारे के साथे यात्रा शुरू की, कल की यात्रा की अपेक्षा आज की यात्रा का रास्ता आसान था। सभी यात्री लगातार बढ़े जा रहे थे। आज मेरी पोनी वाली नहीं थी। जिस से मैं पैदल ही आगे चल पड़ा। थोड़ा आगे जाने के बाद मैंने गुरु से अपने पोनी वाली के बारे में बात की। गुरु ने पोनी वाली के साथियों से बात की। तभी उन से पता चला कि कल रात को उस के पति का एक्सीडेंट हो गया था, वो उसे हॉस्पिटल ले कर गई थी। मन ही मन भोले नाथ से उस के पति के ठीक होने की दुआ कर मैं धीरे धीरे आगे बढ़ गया। हम जोंगज़ेर्बू नदी के किनारे-किनारे दूसरी ओर कच्चे पहाड़ों के बीच समतल घाटी में प्रकृति के रुप को निहारते बढ़ते जा रहे थे।

करीब 5 कि.मी. चलने के बाद हम ऐसे जगह पहुंचे जहाँ बस हमारा इंतज़ार कर रही थी। यात्री आते जा रहे थे और कैलाश-परिक्रमा पूर्ण होने की ख़ुशी में गले लग रहे थे।  सभी बस में आ कर बैठ गये ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी। बस में सभी ने उच्चस्वर में एकसाथ ’बोलिए शंकर भगवान की जय’, ’बम-बम भोले’ का घोष किया। बस चल पड़ी। रास्ते की नज़ाकत के साथ कभी धीमी तो कभी तेज गति पकड़ते हुए 8:30 बजे पुनः दारचेन के उसी गेस्टहाऊस में जाकर रुक गयी। यहाँ पर हम ने कुछ देर ही रुकना था। बस के रुकते ही हम सब नीचे उतर गए। थोड़ा सा घूम कर हम सभी बस में बैठ गए। बस में बैठते हुए हमारे गाइड गुरु की हमारे एक यात्री श्याम से किसी बात को ले कर बहस हो गई। जिस से गुरु ने हम सब को धमकी देनी शुरू कर दी अगर हम उस की बात नहीं मानेगें तो वो हम सब को एंटी चाइना एक्टिविटी में अंदर करवा देगा। कुछ यात्रियों के बीच में आने से दोनों शांत हो गए। लेकिन हमें गुरु की बात बहुत बुरी लगी। बाद में एक यात्री ओम प्रकाश जी ने उस के खिलाफ एक लैटर लिखा और हमारे साइन करवा लिए गए। उसे मिनिस्ट्री ऑफ़ एक्सटर्नल अफेयर को बाद में दे दी गई।   

उस के बाद हमारी बस मानसरोवर परिक्रमा के लिए आगे बढ़ गई।  बस चलते हुए गाँव, मैदान और पठार पार करती विशाल मानसरोवर के किनारे-किनारे बनी पक्की सड़क पर दौड़ रही थी। हम बस की खिड़की से मानस सरोवर को निहार रहे थे। कभी पास लगती तो कभी दूर! झील के पार कैलाश-पर्वत भी साथ-साथ दर्शन दे रहे थे। यात्रा में लगातार हमारी बस मानसरोवर के किनारे-किनारे ही जा रही थी। चारो तरफ हिमालय की पर्वत मालाएं है प्रायः सभी शिखर हिमाच्छादित है।कई जगह रास्ते में सड़क-निर्माण हो रहा था। 

लगभग 10.30  बजे मानसरोवर के किनारे बने कुगु के गेस्टहाऊस के प्रांगण में बस रुकी। सभी शीघ्रता से नीचे उतर आए। यह स्थान दारचेन से 118 कि.मी. दूरी एवं समुद्र सतह से 4600 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। यात्रियों के रूकने की व्यवस्था चीन सरकार द्वारा यहां की गई है।

गेस्टहाऊस में दो ओर आमने-सामने पंक्तिबद्ध कमरे बने थे। सभी के दरवाजे प्रांगण में खुलते थे और सभी खिड़कियाँ मानसरोवर की ओर खुलती थीं तो दूसरी पंक्ति के कमरों के खिड़कियाँ मान्धाता पर्वत की ओर। अन्य दो साइड्स में एक ओर दरवाज़ा बना था मोनेस्ट्री की ओर, तो दूसरी ओर खुला क्षेत्र था, उसी ओर दो टॉयलेट बने थे। दोनों ओर से मानसरोवर झील के किनारे तक पहुँचा जा सकता था।

हम लोग अपने कमरे में आ गए। कमरा बहुत साफ़ सुथरा और बड़ा था। दरवाजे के बिलकुल सामने पूरी दीवार की चौड़ाई में बड़ी खिड़की जिसपर कँच के डबल दरवाज़े थे। पूरी कैलाश और मानस परिक्रमा  का सबसे बेहतर कमरा था। कमरा और उस की साज सज्जा देख कर दिल खुश हो गया। हमारा सामान भी आ गया था। गिनती के बाद अपना अपना सामान ले आये। मौसम साफ़ था। धूप खिली थी सो यात्रियों ने निश्चय किया कि मानस में डुबकी उसी दिन लगा ली जाए क्योंकि अगले दिन मौसम अनुकूल हो या न हो।

लगभग 12.00 बजे यात्रीगण मानसरोवर स्नान करने जाने की तैयारी करने लगे। हम लोग मानसरोवर में स्नान करने हेतु गेस्ट हाऊस से बाहर निकलकर झील के किनारे एक स्थान पर रूक गए। सभी एक-एक कर नहाने हेतु पानी में जा रहे थे। इतनी पास से मानस !!! अनेक झील देखीं हैं पर यह दिव्य झील मानो नीलमणि पिघलकर बह रही हो!!! कहते हैं ब्रह्मा ने देवताओं के लिए इसे रचा! स्वच्छ जल! आकाश जिसमें डूबता सा लगता था, लहरें मानों अनुशासन में नापकर दूरी तय करती हों और सामने भव्य कैलाश का दर्शन! क्या कहें लिखते में भी रोमांच होता है! पहले झुककर कैलाश पर्वत को नमस्कार किया और पिघली बर्फ़ से ठंडे जल को दोनों हाथों में लेकर मस्तक से लगाया। 

मानसरोवर का पानी एकदम साफ, अत्यधिक ठण्डा है। पानी में कमर तक गहराई में जाने पर भी नीचे सतह स्पष्ट दिखाई दे रहा था। पानी ठण्डा होने के बाद भी मानसरोवर में डुबकी लगाने पर असीम आनन्द की अनुभूति हुई। स्नान के दरम्यान देवी-देवता तथा सद्गुरू एवं पुरखों की याद आई। मानसरोवर में स्नान करते समय एक तरफ दूर में दिखाई दे रहे ‘‘कैलाश‘‘ तथा दूसरी तरफ ओर मांधाता पर्वत के दर्शन किया। मानसरोवर में स्नानकर अद्भुत अनुभूति प्राप्त कर अपने कमरे में लौट आये। 

शाम होने पर मानसरोवर किनारे खड़ा होकर सूर्यास्त देखा और कैलाश दर्शन कर अपने अपने कमरों में सोने के लिए चले गए।  ऐसी मान्यता है कि रात्रि के अंतिम प्रहर में भोर से पहले देवगण आकाश मार्ग से रौशनी के रूप में मानस में स्नान करने आते हैं। इसलिए सब ने ब्रह्मा मुहर्त में देवगणो को देखने का फैसला किया। 

आधी रात में अचानक ओम प्रकाश जी ने हमारे कमरे का दरवाजा खुलवाया और कहा कि बाहर रोशनियाँ दिखनी शुरू हो गई हैं। हम सभी बाहर झील की तरफ गए, लेकिन हमें कोई रौशनी नहीं दिखी। हम तब तक और यात्री भी आ गए थे। हम सभी झील के किनारे बैठ कर देवगणो का इंतज़ार करने लगे। एक दो बार आकाश में प्रकाश फैलता नजर आया था जैसे कोई टॉर्च से प्रकाश फैंक रहा हो। बाहर बहुत ठण्ड थी। तापमान माइनस में होगा शायद। हम सभी ने 6-6 कपडे ,दस्ताने,कैप आदि पहन रखे थे। सभी का ध्यान झील और आकाश की तरफ था। 3 घंटे के करीब बैठने के बाद मैं कमरे में चला गया। धीरे धीरे सभी यात्री अपने अपने कमरों में चले गए। मेरे ख्याल में किसी को भी देवगणों के दर्शन नहीं हुए।            

 








यहाँ पर पैदल रास्ता खत्म कैलाश परिक्रमा का 




दारचेन में तिब्बती बाइक 

दारचेन में प्राइवेट कैंप 


झील की परिक्रमा की तरफ जाते हुए बस से खिंचा गया फोटो 

बस से लिया गया रास्ते का फोटो 

तिब्बती पेट्रोल पंप 


परिक्रमा के दौरान बस से लिया गया मानसरोवर झील का फोटो 


गेस्ट हाउस के पास बुद्ध मठ 

गेस्ट के दूसरी तरफ पर्वत 


मानसरोवर झील और कैलाश पर्वत 






मानसरोवर झील में स्नान 

कमरे के अंदर खिड़की से झील और कैलाश के दर्शन 





मानसरोवर झील के पानी के दो रंग 




झील की तरफ से गेस्ट हाउस का फोटो 

शाम के समय झील के सुन्दर दर्शन 

कमरे के अंदर का दृश्य 

Monday 21 September 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा-----सोलहवाँ दिन-----डेरापुख से ज़ुंज़हुई पुक


डेरापुख से ज़ुंज़हुई पुक , दूरी 20  किमी पैदल 
डोल्मा-ला पास ऊँचाई 5750मीटर/19500 ft.
ज़ुंज़हुई पुक की ऊँचाई 4780 मीटर
 
डोलमा पास (कठिनतम और उच्चतम चढ़ाई)
 


आज हम सब ने यात्रा का सबसे कठिन और ऊँची चढ़ाई वाला भाग तय करना था। यहाँ सब कुछ मौसम पर निर्भर था, कब बर्फ़ पड़ने लगे और कब तेज बारिश, कुछ भी सुनिश्चित नहीं होता। कल रात से ही बादल आ गए थे। सुबहे 4 बजे हम उठ गए बाहर काफी ठंडक थी। कपडे जकड कर  टोर्च के सहारे दैनिक-चर्या के लिए स्थान ढूंढ रहे थे।  शौचालय के अंदर जाने की हिम्मत न थी, अँधेरे और बाहर आती  दुर्गेंध ने बाहर जगह देखने को मज़बूर कर दिया था। खैर किसी तरह शौचालय से थोड़ी दूरी खुले में दैनिक निवर्त हो लिए।
 
फिर ब्रश वगैहरा कर के चाय पी और तैयार हो गये। हम सभी बाहर आ कर गोल्डन कैलाश के दर्शन के लिए खड़े हो गए। बादल  होने के कारण गोल्डन कैलाश के दर्शन न हो सके। तब तक मेरी पोनी वाली  भी आ गयी

‘‘ओम नमः शिवाय‘‘ उद्घोष के बाद पैदल यात्रा 5.15 पर शुरू की गई। हवा में पूरी ठंडक थी। सांस फूलना सामान्य बात थी। थोड़ी दूर ही पैदल चलने पर सांस फुलने लग गया चूंकि आगे लगभग 5 कि.मी. खड़ी, संकरी, पथरीली चढ़ाई थी, इसलिए घोड़े से आगे की यात्रा प्रारंभ की गई। रास्ते में चारो तरफ सिर्फ चट्टान ही चट्टान दिखाई दे रहा था, पेड़ पौधे एवं हरियाली के नामो निशान नहीं है।

हमें वहाँ कोई भी स्थानीय व्यक्ति या जानवर न मिला, पर इन टीलों में लोगों के पुराने कपड़े यहाँ-वहाँ फैले पड़े थे।

ठंडी और तेज हवा के बीच उन पठारी टीलों को पार करके हम साढ़े छः के आसपास खड़ी ऊँची पहाड़ी पर चढ़ने लगे। चढ़ाई मानों किसी दीवार पर चढ़ रहे हों। पोनी बार-बार पीछे को आता मैं बड़ी मुश्किल से, पोनी की गर्दन तक अपना सिर झुकाए हुए संतुलन बनाए बैठा था। पोनीवाली का साँस फूल रहा था वह रुक-रुककर गहरी सांस लेती रही। डोल्मा पास से आधा कि.मी पहले मेरी पोनी वाली ने मुझे उतार दिया। बड़ी मुश्किल से चढाई चढ़ कर हम लोग डोल्मा  पास पहुंचे जिसकी समुद्र सतह से ऊचाई 19500 फीट हैं इस स्थल को तिब्बती देवता डोमा के नाम से डोल्मा माता का स्थान भी कहते है। चारो ओर से उच्च्चतम पर्वत-मालाओं से घिरा, फैली हुयी विशालाकार चट्टानों/शिलाओं से पटा पड़ा विशाल दर्रा – डोलमा-ला पास!!!
 
डोल्मा पास पर रंग बिरंगी तिब्बती मंत्रो से लिखी झंडियां लगी हुई थी, जो एक अलग ही बहुत सुन्दर नजारा पेश कर रही थी। शिलाओं और चट्टानों के बीच- बीच में बर्फ़ जमीं थी। यात्री वहीं-कहीं बड़ा सा पत्थर देखकर उसपर बैठते जा रहे थे। मैं भी वहीं बैठ गया । भगवान को प्रणाम किया और अपने बैग से ड्राई-फ्रूट का पैकेट निकालकर खाया और थोड़ा अपनी पोनी वाली  को दिया।
 
यहां सभी यात्री पूजा करते है। रोली, मेंहदी, हल्दी चढ़ाकर एवं कपूर बत्ती, अगरबत्ती जलाकर मैंने भी पूजा की। पूजा स्थल पर बर्फ जमा हुआ है। पास ही ‘‘शिव स्थल‘‘ है वह भी बर्फ से ढंका हुआ है यहां यात्रीगण पुराने कपड़े छोड़ते है अर्थात मुनष्य वर्तमान धारण किए शरीर को छोड़कर नवीन शरीर धारण करता है। यह भी बताया गया कि ‘‘शिव स्थल‘‘ में मृत्यु के देवता यम द्वारा आपका परीक्षा लिया जाता है।
 
यह स्थान समुद्र सतह से काफी ऊंचा है, तेज ठण्डी हवा है व साथ ही बर्फ भी जमा हुआ है। आक्सीजन कम हैं यहां मौसम कभी भी खराब हो जाता है। इसलिए यहां यात्रियों को अधिक समय तक रूकने की सलाह नही दी जाती।

डोल्मा पास के पास बड़ी संख्या में कपड़े और प्लास्टिक की बॉटल इधर-उधर फैली पड़ी थीं। बड़ा अफ़सोस हुआ यह देखकर! डस्टबिन था वहाँ पर, लेकिन सब कुछ (बोतल) बाहर फैली हुई थी।

डोल्मा से आगे केवल  चट्टानयुक्त पगडण्डी है, पैदल ही चढ़ाई से उतरना है, इसलिए घोड़े वाली  आगे बढ़ गई। मैं  धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। थोड़ी ही दूर चलने के बाद पहाड़ी के नीचे घाटी में आपस में मिले हुए दो छोटे-छोटे तालाब जैसे दिखाई दिया, जिसमें  पानी हरें रंग का दिखाई दे रहा है जिसके बारे में बताया गया कि यह ‘‘गौरीकुण्ड‘‘ है मान्यता है कि इसमें भगवती मां पार्वती स्नान करती है। कुछ यात्री गौरी कुण्ड से जल ले जाने के लिए अपने अपने पोनी और पोर्टर को  अलग से युआन दे रहे थे।  क्योकि यात्रियों को जल लाने हेतु नीचे खतरनाक फिसलन होने से जाने की सलाह नहीं दी जाती

डोलमा-ला पास से आते रास्ते में मिल गये पत्थरों पर चढ़ते-उतरते पैर और घुटने बिलकुल बेहाल थे। आगे हमने बर्फ का छोटा सा ग्लेशियर पार किया और अब रास्ता उतराई का था काफी चलने के बाद हम ल्हाचू घाटी में पहुंचे। ल्हाचू घाटी में एक छोटी सी दुकान भी थी। जिसमें कोल्डड्रिंक, पानी के बोतल और चॉकलेट इत्यादि मिल रहे थे। मैं भी वहां रूककर थोड़ी देर विश्राम किया। पहाड़ी उतार-चढ़ाव वाले रास्ते के कारण सभी यात्री अत्यन्त थक गए थे इसलिए जिन यात्रियों ने पोनी की सुविधा लिए थे वे सभी तत्काल घोडे़ के द्वारा यात्रा करना प्रारंभ कर दिया।  जिन में मैं भी एक था। हम मिट्टी के ढ़ेरों वाली उबड़-खाबड़ उतार-चढ़ाव रहित घाटी में चल रहे थे। बायी ओर मंद-मंद बहती नदी थी।  जैसे-जैसे हमारी यात्रा आगे की ओर बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे नदी चौड़ी  और गहरी होती जा रही थी। इस के बाद का रास्ता खत्म होने पर ही नहीं आ रहा था। 
 
चलते चलते अंतः हम ज़ुंज़हुई पुक  कैंप पहुँचे। नदी किनारे थोड़ी दूर पर सामने एक लाइन में कई कमरे बने थे प्रत्येक कमरे में पांच बिस्तर लगे थे। पीने के लिए गर्मपानी का जग रखा था पर यहाँ भी टॉयलेट या बाथरुम नहीं थे। कमरों के पीछे खुले में एक ओर महिलाएं और दूसरी ओर पुरुष टॉयलेट की तरह जा सकते थे। कुछ यात्री पहले ही पहुँच चुके थे सो किसी भी कमरे में आराम कर रहे थे। मैं भी एक खाली कमरे में बिस्तर पर लेट गया। 
 
शाम के समय चन्द्रमा अपने पूरे रूप में हमारे कमरों के सामने चमक रहे थे।  सामने पहाड़ पर सूर्य की किरणे और साथ ही पूर्ण चन्द्रमा अलग ही नजारा पेश कर रहे थे।  हम ने जल्दी से इस नज़ारे को कैमरे में कैद करना शुरू कर दिया। आज सभी बहुत प्रसन्न थे क्योंकि शिव की कृपा से यात्रा का कठिनतम भाग भी निर्विघ्न पूरा हो गया था। सभी सकुशल रहे और मौसम हमेशा अनुकूल बना रहा। सारी यात्रा मौसम पर ही तो निर्भर थी।
 
सामने के निचले मैदान में मेरी पोनी अपने साथियो के साथ टेंट लगा के रुकी थी। यहाँ पर  प्रकाश व्यवस्था  जनरेटर से किया गया जो कि रात 9.30 बजे तक ही उपलब्ध  थी। आज की यात्रा से थकावट अधिक थी, इसलिए सभी जल्दी सो गए।

 



गोल्डन कैलाश,ये फोटो मेरी नहीं है। 

कैलाश 

कैलाश पर्वत 

डोल्मा ला पास का रास्ता 




डोल्मा पास का रास्ता 





डोल्मा पास पर 


डोल्मा पास पर पहुँचने पर ख़ुशी 



डोल्मा पास पर झंडियां 


गौरी कुण्ड 





डोल्मा पास से नीचे उतरते हुए छोटा सा ग्लेशियर 













 


शाम को ज़ूम कर के लिया गया चन्द्रमा का फोटो 


हमारा आज का ठिकाना