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Tuesday 6 October 2015

कैलाश मानसरोवर यात्रा------उन्नीसवाँ दिन-----मानसरोवर से तकलाकोट


मानसरोवर से तकलाकोट

कुगु से तकलाकोट 65 कि.मी. बस से 
 
सुबह साढ़े पांच बजे उठकर दैनिकचर्या से निपटकर नाश्ता किया और मानस दर्शन किये। कुछ यात्री सुबह सुबह ही मानस के ठंडे जल में स्नान कर रहे थे।  मानस का अलौकिक दिव्य स्वरुप ही सचमुच इसे देव-सरोवर! बनाता है।  

शिव स्तुति एवं "ओम नमः शिवाय" के उद्घोष के साथ 6 बजे हमारी बस चल पड़ी।  यात्रियों ने विदाई-भाव के साथ शिव-धाम कैलाश और देव-सरोवर मानस को नमन किया और ’हर-हर महादेव’ के जयकारे लगाए। सभी कैलाश से विदा लेते में भावुक थे क्योंकि आगे धीरे-धीरे कैलाश के दर्शन छिप जाते हैं। यही बाबा भोले के धाम के अंतिम दर्शन थे। हमारी बस मानस के किनारे-किनारे बने रास्ते पर जा रही थी। हम मानस के विशाल रुप को देखकर मुग्ध हो रहे थे।  हमारी बस मानस  को पीछे छोड़कर आगे दौड़ रही थी। थोड़ी देर में मानस दर्शन कम हो गए और राक्षस-ताल दिखेंने लगा। हमारी बस ऐसे जगह रुकी जहा से मानस ताल, राक्षस-ताल दाये और बाये थे।

रास्ते में बीच-बीच में एक दो गाँव भी नज़र आए, पठारी और पहाड़ी क्षेत्र का सौंदर्य हमें पलक झपकने नहीं देता था। बस दौड़ रही थी और हम बाहर देख रहे थे। 

 
ज़ोरावर सिंह की समाधि
 
लगभग 2 घंटे चलने के बाद आसपास हमारी बस सड़क के बायीं ओर साइड में जाकर खड़ी हो गयी। गुरु ने सभी से नीचे उतरने को कहा। लगभग सौ मीटर अंदर जंगल में गए। वहाँ छोटे-छोटे पत्थरों को चुनकर लाल रंग से पुता हुआ एक मंच/चबूतरा सा बना हुआ था। जिस पर मठ की भांति तिब्बती-परंपरा की तरह कपड़ों की झंडियाँ बांधी हुयी थीं।

हम सभी वहाँ एकत्र हो गए। तब गुरु ने बताया कि वह ’तोय’ गांव है और वह चबूतरा भारत के वीर बलिदानी सेना-नायक ज़ोरावरसिंह की समाधि है। वीर ज़ोरावर सिंह लद्दाख को भारत का अभिन्न हिस्सा बनाने के अभियान का हीरो था।  स्थानीय भाषा में उसे सिंगलाका चौतरा कहा जाता है। गुरु के अनुसार स्थानीय लोगों में उस समाधि की बड़ी मान्यता है। वहाँ समाधि पर आने से उनकी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। हम सभी ने सच्चे मन से उस सैनानी को अपनी विनम्र श्रद्धांजली अर्पित की। 

 
जोरावर सिंह के बारे में 
 
जनरल जोरावर सिंह कुशल प्रशासक, साहसी, युद्ध कौशल में निपुण और महान योद्धा थे। ये महाराजा गुलाब सिंह की सेना में बतौर सिपाही भर्ती होकर जनरल पद तक पहुँचे।

224 वर्ष पूर्व 13 अप्रैल 1786 को हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले स्थित कहलूर नामक गाँव में जन्मे जोरावर सिंह के व्यक्तित्व तथा कार्य कुशलता से प्रभावित होकर महाराजा गुलाब सिंह ने उन्हें किस्तवाड्‍ का गवर्नर नियुक्त कर वजीर की पदवी प्रदान की। वजीर बनने के बाद जनरल जोरावर सिंह ने अपना पूरा ध्यान सेना के प्रशिक्षण पर केन्द्रित किया। उन्होंने अपने जैक स्टेट फोर्सेज का नेतृत्व करते हुए कई महत्वपूर्ण युद्धों में अपनी सेना को विजय दिलाई।

लद्दाख पर आक्रमण- 1834 में जोरावर सिंह ने लद्दाख पर आक्रमण कर दिया। 11000 फुट की ऊँचाई पर भेड़ की खाल पहनकर जबर्दस्त लड़ाई लड़ी। कड़े संघर्ष के बाद जनरल जोरावर सिंह की सेना ने दुश्मन की सेना को मार भगाया। जनरल जोरावर सिंह ने बाल्टिस्तान युद्ध, तिब्बत पर आक्रमण में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तिब्बत आक्रमण में विजय अभियान को आगे बढ़ाते हुए जनरल जोरावर सिंह ने 12 दिसंबर 1841 को तोया युद्ध में अभूतपूर्व साहस का परिचय देते हुए रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की। अदम्य बहादुरी के कारण ही इन्हें भारत का लिटल नेपोलियन भी कहा जाता है।

जनरल जोरावर सिंह
वीर जोरावर सिंह जी 

ज़ोरावर सिंह की याद को मन में संजोय हम बस में बैठकर पुनः तकलाकोट की ओर बढ़ गए।
हमारी बस तकलाकोट को पार कर खोजरनाथ के रास्ते पर चल पड़ी खोजरनाथ एक प्राचीन हिन्दु मंदिर है। खोजरनाथ तकलाकोट से लगभग 20 कि.मी. दूर है। 

मंदिर में आदम कद से भी बड़ी तीन मूर्तियाँ थी, जिनको गुरु ने राम, लक्षमण और सीता बताया। बीच में राम बाएं सीता तो दांए लक्षमण। इन मूर्तियों की बनावट बुद्ध मूर्तियों की तरह ही है। हालांकि बाहर बोर्ड पर उसे खोरचग मोनेस्ट्री ही लिखा है। इस की स्थापना 996 ई. में रिनचेन  सांगपो द्वारा की गई थी। मंदिर के बीचो बीच घी के बड़े-बड़े दीपक जल रहे थे। यात्रियों को भी दीपक खरीदकर आरती करने की सुविधा थी। हम सब ने भी दीपक जलाए। मंदिर में युवान के साथ-साथ रुपया भी लिया जा रहा था। मंदिर में अंदर मूर्तियों के सिंहासन के चारों ओर अति संकीर्ण परिक्रमा-मार्ग था। जिसमें बिलकुल गुपागुप्प अंधेरा था। पहले तो डर लगा फिर चले गए और परिक्रमा करके बाहर आ गए। मंदिर के दायीं ओर एक कक्ष में भगवान बुद्ध की ध्यानस्थ-मुद्रा में मूर्ति विराजित थी। हमसब ने वहाँ भी मस्तक झुकाकर नमस्कार किया और मंदिर का पुस्तकालय देखा और बाहर आगए। मठ के परिक्रमा स्थल में प्रार्थना चक्र लगे थे।  जिन पर तिब्बती भाषा में मंत्र लिखे हुए थे। बौद्ध श्रद्धालु परिक्रमा करते समय उन्हें घूमते जा रहे थे।  
 
 
बाहर मैन गेट के पास ही मंदिर के प्रबंधक की ओर से हम सब यात्रियों को याक के दूध की चाय पिलायी गयी। वहीं एक छोटी सी कोठरी में मंदिर और कैलाश-मानसरोवर के पोस्टर और चित्रों के अतिरिक्त पूजा की अन्य सामग्री भी बिक रही थी। कुछ सहयात्री खरीददारी कर रहे थे, कुछ बाहर बस के पास आगए थे। मठ के चारों ओर पक्की सड़कें, मकान थे। जिन पर चीन के झंडे लहरा रहे थे। 

करीब 1 घंटा खोजरनाथ में बिताने के बाद हम तकलाकोट के लिए रवाना हो गए। सभी यात्री तिब्बत के पठारों के प्राकृतिक नज़रो को कैमरे में कैद करने में लगे थे। जल्दी ही हम तकलाकोट पहुंच गए अपने कमरो में जा कर स्नान किये और लंच किये फिर शॉपिंग करने निकल गए क्योंकि हमें अपने लगेज वापस पैक कर के कस्टम क्लेरेंस के लिए जमा कर देना था।

शाम को रात्रि का भोजन कर सो गए।


सुबह के समय मानस के सामने आखिरी फोटो 



चलती बस में लिया गया रास्ते का फोटो 

राक्षस ताल 


चलती बस में लिया गया रास्ते का फोटो 


चलती बस में लिया गया रास्ते का फोटो 




महान सेनानायक जोरावर सिंह जी की समाधि 




खोजरनाथ / खोरचग मोनेस्ट्री के बाहर का दृश्य 


मंदिर के अंदर  का दृश्य 



राम ,सीता,लक्ष्मण जी की मूर्तियां 










तकलाकोट में नेपाली मार्किट 

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