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Sunday 3 July 2016

अर्की--लुटरु महादेव

अर्की--लुटरु महादेव 

लुटरु महादेव ( एक ऐसा शिवलिंग जहाँ पर सदियों से सिगरेट रखी जाती है, जो खुद सुलगती है और धुंआ ऐसे उड़ता है जैसे कोई कश लगा रहा हो। ) एक ऐसी छुपी हुई जगह जिस के बारे में मैंने अपने ऑफिस में एक बन्दे से सुना था आज से एक साल पहले। फिर इस जगह के बारे में याद ही नहीं रहा। दो महीने पहले ही व्हाट्सअप पर घुमक्कड़ ग्रुप (घूमने फिरने वालों का ग्रुप ) में मैंने इस जगह के बारे में सब दोस्तों को बताया। तब से दिल में एक कसक सी उठ रही थी इस जगह चला जाए। एक बार तो बाइक पर जाने का प्रोग्राम बन भी गया, लेकिन किसी वजह से जा ना सका। फिर अचानक 01.06.2016 को कार में महादेव के दर्शन के लिए सुबह 5.30 पर निकल गया। 6.20 पर हम जीरकपुर पहुँच गए। जीरकपुर से आगे हम शिमला वाली सड़क पर होते हुए धर्मपुर  पहुँच गए। धर्मपुर  से 1 कि.मी. पहले बायीं तरफ एक सड़क कसौली को जाती है। धर्मपुर से बायीं तरफ को मुड़ते हुए हम सुबाथु की ओर चल दिए। सुबाथू की तरफ मुड़ते ही 7 -8 कि.मी. तक ढलान है। उस के बाद हलकी चढाई। हमारी गाडी इस कम भीड़ भाड़ वाली सड़क पर चलती जा रही थी। 8.50 पर हम सुबाथू पहुँच गए। सुबाथू एक छोटा सा और 200 साल पुराना कैंटोनमेंट एरिया है। सुबाथू जिला सोलन हिमाचल प्रदेश का हिस्सा है। यह तक़रीबन 4500 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है। सुबाथू कैंट की स्थापना एंग्लो - नेपाल युद्ध (1814 -1816 ) जीतने के बाद हुई। जीत के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहाँ छावनी ड़ाल दी और प्रथम गोरखा राइफल स्थापित की। आजकल यहाँ 14वी गोरखा का प्रशिक्षण केंद्र है। यहाँ पर एक सुंदर कलिका देवी मंदिर है। जिसकी स्थापना 1958 की गई थी।

मिलिट्री एरिया में प्रवेश करने से पहले 10 रुपए की पर्ची कटती है। प्रवेश करते ही थोड़ी दुरी पर मुझे एक ऊंचाई पर सुंदर मंदिर दिखा। मैंने कार साइड में रोक कर मंदिर के बारे में पूछा तो एक जवान ने मंदिर जाने के लिए मना कर दिया। क्योंकि उनके किसी अधिकारी की विजिट थी। खैर हम आगे बढ़ते हुए सैनिक एरिया से बाहर आ गए। हमारी अगली मंजिल अब कुनिहार पहुंचना था जो यहाँ से 17 कि.मी. था। जैसे जैसे दिन चढ़ रहा था गर्मी भी बढ़ती जा रही थी। 7 कि.मी. के बाद हम गम्बेरपुल जगह पहुंचे। पुल पार करते ही मुझे एक बोर्ड दिखा जिस पर लिखा था विरजेश्वर महादेव मंदिर। बस उसके बाद मैंने दाईं तरफ विरजेश्वर महादेव मंदिर की तरफ गाडी मोड़ ली। आधा कि.मी. के बाद हम उस मंदिर के पास पहुँचे।  मंदिर में जाने के लिए एक छोटा सा पुल बना हुआ है। मंदिर एक छोटी सी नदी के किनारे बना हुआ है। मुख्य मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। महिलायों को देवता के दर्शन के लिए ऊँचे लोहे से बने सीढ़ीनुमा मचान पर चढ़ कर बाहर से दर्शन करने होते हैं। वहाँ पुजारी जी नहीं थे, जो हमे बता सकते कि महिलाएं क्यों नहीं मंदिर में प्रवेश कर सकती? हम ने मंदिर में दर्शन कर फोटो खींच कर बाहर की तरफ आ गए। मंदिर बहुत ही सुंदर जगह पर बना हुआ था।  अगर मौसम अच्छा होता तो वहाँ शायद हम कुछ देर और अवश्य रुकते। बाहर धूप बढ़ती जा रही थी। जल्दी से हम गाडी में बैठ गए और आगे अर्की के लिए रवाना हुए। कुनिहार को पार कर 17 कि.मी. आगे हम 10.50 पर हम अर्की पहुँच गए।

अर्की के बारे में

स्वतंत्रता पूर्व अर्की बाघल रियासत के नाम से प्रसिद्ध था। 13 वी या 14 वी शताब्दी में प्रारम्भ में बाघल रियासत की स्थापना परमार वंशीय अजयदेव ने की थी।  इस रियासत की राजधानी काफी समय तक धुंधन रही।  धुंधन के इलावा इस रियासत की राजधानी दाड़ला भी रही।  इस रियासत की सीमाएं काली सेरी ( बिलासपुर ) से जतोग ( शिमला ) और कुनिहार से मांगल तक फैली हुई थी। मुग़ल काल में बाघल रियासत भी मुग़लों के अधीन थी।  सन् 1643 में शोभा चंद ने अर्की नगर बसाया था और इसे राजधानी बनाया था। नगर के शीश पर पवित्र महादेव गुफा है। अर्की में हर साल दो दिन का मेला लगता है और मेले का मुख्य आकर्षण भैंस की लड़ाई होती है।

मंदिर से कुछ दुरी पहले ही हम ने कार रोक दी और इस के आगे पैदल चल पड़े।  थोड़ी सी सीढ़ियां चढ़ने पर हम मंदिर की गुफा के प्रवेश द्वार पर पहुँच गए। गुफा में जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। सीढ़ियां खत्म होते ही बहुत बड़ी गुफा है और बिल्कुल सामने लुटरु महादेव के दर्शन होते हैं। गुफा के अंदर प्रवेश करते ही सारी थकावट दूर हो गई।

लुटरु महादेव गुफा के बारे में

प्राचीन लुटरु महादेव गुफा एक चमत्कार की तरह है। आग्रेय चट्टानों से निर्मित इस गुफा की लम्बाई पूर्व से पश्चिम की तरफ लगभग 25 फ़ीट तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 42 फ़ीट है। गुफा की ऊंचाई तल से 6 फ़ीट से 30 फ़ीट तक है। गुफा के ऊपर ढलुआ चट्टान के रूप में एक कोने से प्रकाश अंदर आता है। गुफा की ऊंचाई समुद्र तल से 5500 फ़ीट है ओर इस के चारों ओर 150 फ़ीट का क्षेत्र एक विस्तृत चट्टान के रूप में फैला है। गुफा के अंदर मध्य भाग में 8 इंच लम्बी प्राचीन प्राकृतिक शिव की पिंडी विधमान है। गुफा की छत में परतदार चट्टानों के रूप में भिन्न भिन्न लंबाइयों के छोटे छोटे गाय के थनो के अकार के शिवलिंग दिखाई पड़ते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार इनसे दूध की धारा बहती थी। लेकिन अब इन प्राकृतिक थनो से पानी की कुछ बुँदे टपकती रहती हैं, जिन्हे देख कर मानव आचर्यचकित हो जाता है। 



यहाँ पर शिवलिंग काफी अलग तरह का है आमतौर पर शिवलिंग की सतह पतली होती है। मगर यहाँ पर बने शिवलिंग में काफी गड्ढे बने हुए हैं। लोग इन्ही गड्ढों में सिगरेट फंसा देते हैं कुछ ही देर में सिगरेट खुद ब खुद सुलगने लगती है, मानो कोई कश ले रहा हो। एक बात जो यहाँ धयान देने वाली है शिवलिंग के ठीक ऊपर एक गुफा पर छोटा सा गाय के थन के जैसा एक शिवलिंग बना है जहाँ से पानी की एक एक बूँद ठीक शिवलिंग के ऊपर गिरती रहती है। पहले बाबा शीलनाथ जी यहाँ बैठा करते थे, जो पंजाब के चमकौर साहिब के शिव मंदिर के महान महात्माओं में से एक थे। वर्ष 1982 में केरल राज्य में जन्मे महात्मा सन्मोगानन्द सरस्वती जी महाराज का यहाँ आगमन हुआ। उनकी समाधि यही बनी हुई है। आजकल बाबा रामकिरपल भारती जी और महात्मा विजय भारती जी यहाँ विराजमान है तथा उनकी देखरेख में इसके संचालन के लिए लुटरु महादेव का भी गठन किया गया है। गुफा के नीचे विशाल धर्मशाला का भी निर्माण किया गया था। लोगों के बीच लुटरु महादेव की बड़ी मान्यता है।  दूर दूर से लोग यहाँ आते हैं।

गुफा में प्रवेश करते ही हमने कुछ देर विश्राम किया। गुफा के प्रवेश द्वार के बाईं तरफ बाबा रामकिरपल जी धूनी के पास बैठे थे। हम ने भोलेनाथ को जल चढ़ाया और पूजा की।  इस के बाद मैंने बाबा जी से शिवलिंग के कश वाली बात की और शिवलिंग पर सिगरेट लगाने के लिए विनती की। बाबा जी ने बड़ी नम्रता से मेरी विनती को स्वीकार कर अपने चेलों से सिगरेट लाने को बोला। उसके बाद बाबा जी ने सिगरेट को भर कर शिवलिंग में लगा दिया और जलाया।  देखते ही देखते सिगरेट अपने आप सुलगने लगी। ऐसे लग रहा था जैसे कोई सिगरेट का कश लगा रहा हो।

अगर वैज्ञानिक तरीके से देखें तो ये कोई चमत्कार नहीं है। क्योंकि मंदिर काफी ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ पर हवा भी तेज चलती है। जैसे ही हवा तेज चलती है तो शिवलिंग के आस पास की हवा तेजी से गलियारा बनाती हुई निकलती है। इस से शिवलिंग पर फंसा कर रखी सिगरेट की आग तेज होती है और सुलगने लगती है। लेकिन एक बात तो तय है कि इस गुफा में आ कर मन शांत हो जाता है। गुफा का वातावरण बहुत ही भक्तिमय और पावन है। इतनी देर में कुछ और लोग भोले बाबा के दर्शनों के लिए आ गए। हम सब वही बैठ कर बाबा रमकिरपल जी के प्रवचनों का आनंद लिया। बाबा ने सब के लिए गुफा में ही चाय का प्रबन्ध किया। 2 घंटे गुफा में बिता कर पर लौटने लगे। जैसे ही हम सीढ़िया उतर कर जाने लगे तो वहाँ के सेवादारों ने हमे भोजन का न्यौता दिया। जिसे हम ने स्वीकार कर लिया। भोजन के लिए हम गुफा के पास बनी 5-6 कमरों की धर्मशाला में गए और गैलरी में बैठ गए। धर्मशाला के कमरे खुले, हवादार और साफ़ सुथरे थे। भोजन बहुत ही स्वादिष्ट था। जिस किसी ने धर्मशाला में रुकना हो तो वो वही रात को रुक सकता है। खैर हम भोजन कर और उन्हें धन्यवाद कर नीचे गाडी के पास आ गए। महादेव के दर्शनों के बाद हमारी अगली मंजिल अर्की का किला था।

मुख्य बाजार से 1 कि.मी. ऊंचाई एक ऊँची पहाड़ी पर अर्की किला है। किले में प्रवेश के लिए 20 रुपए की पर्ची कटवानी पड़ती है। अर्की के किले को 1695-1700 के मध्य राणा पृथ्वी सिंह ने बनवाया था। कार को हम ने किले के गेट के अंदर पार्क कर दी। दोपहर का समय और ऊपर से सूरज देवता भी पूर्ण रूप से दर्शन दे कर हमे पसीने से नहा रहे थे। खैर किसी तरह हम किले में प्रवेश किये। किले के गेट के सामने पक्का रास्ता था जिसके दोनों तरफ पार्क था जिसे अच्छे से सहज कर नहीं रखा गया था।  रास्ते के बिलकुल सामने किले का एक हिस्सा जो अब किसी का  प्राइवेट हिस्सा है। किले एक प्रवेश द्वार पर हेरिटेज होटल और कैफ़े का बोर्ड लगा हुआ था जो अब बंद हो चूका है। किले से अर्की शहर का नजारा बहुत ही सुंदर दिखता है। दीवाने-ए-ख़ास किले का एक  में मुख्य हिस्सा है जो देखने वाला है। जब हम उस हिस्से में पहुंचे तो वो हिस्सा लॉक था। हम ने वही पर किसी व्यक्ति को बोल कर उस हिस्से को खुलवाया। इस हिस्से में दीवारों पर बनी चित्रकला अत्यन्त लुभावनी है। पुरे दीवान -ए-ख़ास में चारों ओर , मध्य खम्बों पर और छतों पर ये रंग बिरंगे चित्र बनाए गए हैं। इन्हे देख कर तत्कालीन समाज की रूचि ,रीती, प्रवृति और प्रकृति का स्पष्ट चित्र सामने आता है। किला अब खंडहर अवस्था में था। लेकिन एक बात तय है अर्की का यह किला अपने अतीत की गौरव और वैभव की गाथा सुना रहा है। किले में ज्यादा कुछ घूमने वाला नहीं था ऊपर से गर्मी भी बहुत थी। किले घूम कर हम अपनी गाडी में आ गए और अपनी अगली मंजिल अर्की से 6 कि.मी. की दुरी पर जखोली में भद्रकाली मंदिर की तरफ चल दिए।

भद्रकाली छोटा सा और सुंदर मंदिर था। इस मंदिर की यहाँ पर बहुत ही मान्यता है। यहाँ पर माता पिंडी रूप में है। यहाँ शिव बाबा का भी मंदिर है। ये मंदिर 1000 साल पुराना बताया जाता है।

पटियाला से अर्की तक का रूट 

पटियाला----60----जीरकपुर----50----धर्मपुर----16----सुबाथू----17----कुनिहार----17----अर्की  = 160  KM

अगले भाग में जाने के यहाँ क्लिक करें। 


सुबाथू कैंट एरिया 

बिजेश्वर महादेव 


पुल पार करते ही बिजेश्वर महादेव मंदिर 

बिजेश्वर महादेव मंदिर 

मंदिर के अंदर 


दूर सामने बिजेश्वर महादेव मंदिर 


सामने पहाड़ी पर लुटरु महादेव की धर्मशाला

गुफा की तरफ जाने वाला रास्ता 

गुफा में रौशनी आने की जगह 

बाबा रमकिरपाल भारती जी 

भोले बाबा लुटरु महादेव 





गुफा की दीवार पर गणेश जी 

भोले बाबा कश लगाते हुए 


गुफा के अंदर का दृश्य 

गुफा की दीवारों पर उभरे हुए धनो से पानी टपकता हुआ। 


गुफा के बाहर से दृश्य 


धर्मशाला जहाँ हम ने लंगर खाया था। 

लुटरु महादेव की पहाड़ी से नीचे का दृश्य 

अर्की किले का प्रवेश द्वार 





किले से अर्की शहर का दृश्य 



दीवान -ए -ख़ास 


खम्बों पर बनी चित्रकारी 











जखोली में भद्रकाली मंदिर 



Saturday 14 May 2016

मणिमहेश कैलाश यात्रा -- भाग - 2

इस यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। 

सुबह हम 5.30 बजे हम अगले पड़ाव हड़सर की तरफ चल पड़े। भरमौर से हड़सर 9 km की दुरी पर है। 20 मिनट में हम हड़सर पहुँच गए। हड़सर आखिरी पड़ाव है, इस के आगे 14 km यात्रा पैदल करनी होती है। किसी जमाने में यह यात्रा पैदल चम्बा से आरम्भ की जाती थी। सड़क बन जाने के कारण ये यात्रा भरमौर से आरम्भ होती रही और अब यह स्थारण तौर पर यात्रियों के लिए यह यात्रा हड़सर से शुरू होती है। लेकिन यहाँ के स्थानीय ब्राह्मणों-साधुओं द्वारा आयोजित परंपरिक छड़ी यात्रा आज भी प्राचीन परम्परा के अनुसार चम्बा के लक्ष्मी नारायण मंदिर से आरम्भ होती है। 


हड़सर के बारे में 
 
हड़सर में सिवाय शिव मंदिर और मणिमहेश यात्रा का एक पड़ाव होने के इलावा कोई तीर्थ स्थान नहीं। हड़सर का नाम कैसे पड़ा होगा इसके बारे में तो नहीं बताया जा सकता, लेकिन हड + सर से यही मतलब निकाला जा सकता है कि यह स्थान पहले मृतकों की अस्थियां प्रवाहित करने का स्थान रहा होगा। बुड्डल नाले में पुराने लोग अस्थियां प्रवाहित करते होंगे। इस कारण इसे हड़सर कहा जाने लगा होगा। 

सुबह 6 बजे के करीब हम ने नदी की तरफ से भोले का नाम ले कर पैदल यात्रा शुरू कर दी। हड़सर से मणिमहेश की चढाई तक़रीबन 15 km है। अभी चढाई शुरू ही की थी कि पोनी पोर्टर वाले हम से घोड़े पर बैठने और समान उठाने के लिए कहने लगे। हड़सर में ही पोनी और पोर्टर मिल जाते हैं। पोनी पोर्टर वालों को जिला मजिस्ट्रेट ने पहचान पत्र जारी किये हुए हैं। हम ने एक पोर्टर कर के उस को अपने बैग दे दिए और आगे चल दिए। आधा कि.मी. चलने के बाद हमे गुई नाला खड्ड में पहला भंडारा पंजाब के लहरगगघा वालों का मिला जिसे भाई के साडू साहिब द्वारा लगाया गया था। इस यात्रा में भंडारा लगाने के लिए वो दो महीना पहले तैयारी शुरू कर देते हैं और 20 दिन यहाँ पर अपना बिज़नेस छोड़ कर यात्रियों की सेवा में लग जाते हैं। दो साल पहले मेरा भी प्रोग्राम बन गया था इन के साथ यहाँ लंगर में सेवा करने का, पर बिलकुल मौके पर जा नहीं सका। खैर हम ने यहाँ चाय पी। इतना तो तय था कि माया जी आगे पैदल नहीं जा पाएंगी। तो उनके लिए यहीं से पोनी का इंतजाम किया गया। अंजू जी का तो पूरा मन था पैदल यात्रा का, लेकिन माया जी के कारण उनको भी पोनी करना पड़ा। पिछली बार मैं इस यात्रा को पैदल पूरा नहीं कर पाया था। आखिर के चार कि.मी. मुझे पोनी पर करने पड़े थे। उस का भी एक कारण था क्योंकि पिछली बार चढाई वाले दिन मेरा व्रत था जिस कारण खाली पेट चढाई करनी पड़ी थी, दूसरा ट्रैकिंग करने के बेसिक रूल को फॉलो नहीं किया था। वो गलती थी, जब भी पानी पीने के लिए रुकता पेट भर पानी पिया । जबकि ट्रैकिंग करते हुए हमे सिप सिप कर के पानी पीना चाहिए।

Saturday 23 April 2016

मणिमहेश कैलाश यात्रा - भाग - 1

देश की ज्यादातर पहाडि़यों में कहीं न कहीं शिव का कोई स्थान मिल जाएगा, लेकिन शिव के निवास के रूप में सर्वमान्य कैलाश पर्वत के भी एक से ज्यादा प्रतिरूप पौराणिक काल से धार्मिक मान्यताओं में स्थान बनाए हुए हैं। तिब्बत में मौजूद कैलाश-मानसरोवर को सृष्टि का केंद्र कहा जाता है। वहां की यात्रा आर्थिक, शारीरिक व प्राकृतिक, हर लिहाज से दुर्गम है। उससे थोड़ा ही पहले भारतीय सीमा में पिथौरागढ़ जिले में आदि-कैलाश या छोटा कैलाश है। इसी तरह एक और कैलाश, मणिमहेश कैलाश हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में है।

मणिमहेश-कैलाश

धौलाधार, पांगी व जांस्कर पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा यह कैलाश पर्वत मणिमहेश-कैलाश के नाम से प्रसिद्ध है और हजारों वर्षो से श्रद्धालु इस मनोरम शैव तीर्थ की यात्रा करते आ रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला के भरमौर में स्थित मणिमहेश को तरकोर्डज माउंटेन के नाम से भी पुकारा जाता है। जिसका का अर्थ है नीलमणि। कहा जाता है समुद्र तल से 18564 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेश को भगवान् शिव और माँ पार्वती का निवास स्थान माना जाता है। यहां मणिमहेश नाम से एक छोटा सा पवित्र सरोवर है जो समुद्र तल से लगभग 13,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। मणि महेश में हर वर्ष भाद्रपद मास में कृष्णाष्टमी और राधाष्टमी को मेला लगता है।


मणिमहेश कैलाश की यात्रा मैंने पहले भी अपने परिवार के साथ की हुई है। इस यात्रा के पीछे एक कहानी है। 2010 में मेरे भाई के साडू साहिब जो हर साल मणिमहेश में भंडारा लगाते हैं, वो घर पर आये भंडारे के लिए पर्ची कटवाने। मैंने भंडारे के लिए पर्ची कटवा दी। उन्होंने मुझे मणिमहेश की प्यारी सी मूर्ति दी। पता नहीं उस मूर्ति को देखते ही क्या हुआ, अंदर से एक आवाज आई चलो मणिमहेश भोले के निवास स्थान। एक महीने बाद चल पड़ा भोले के दर्शन के लिए अपने परिवार के साथ। उस के बाद तो लत लग गई भोले के स्थान देखने की। 2011 में केदारनाथ, बदरीनाथ, 2012 तुंगनाथ,2014 में कैलाश मानसरोवर और 2015 में फिर से मणिमहेश। कैलाश मानसरोवर यात्रा के दौरान साथ में जो यात्रीगण थे उनमे से कइयों ने मणिमहेश जाने की इच्छा जताई, मैंने उन्हें बताया कि मैंने ये यात्रा की हुई है। तो उन्होंने मुझे ये यात्रा करवाने के लिए बोला। मैं भी एक दम से यात्रा के लिए तैयार हो गया। यात्रा शुरू होने से एक महीने पहले सब को बोल दिया तैयार हो जाओ भोले के दर पर जाने के लिए। हम 6 जनो के जाने का प्रोग्राम बना जो बाद में सिर्फ 3 जन का ही रह गया।  मैं, अंजू जी और माया जी (दोनों दिल्ली से)। मेरा इस बार मणिमहेश पर्वत की परिक्रमा करने का मन था। लेकिन वो हो ना सकी। हम ने 13.09.2015 को शाम को पटियाला से चलना तय किया। अंजू जी और माया जी दोनों दिल्ली से बस से पटियाला आ गई। रात का खाना खा कर और आराम कर के हम पटियाला से टैक्सी के द्वारा रात को 9 बजे भोले के दर्शन हेतु मणिमहेश की तरफ चल पड़े। मुझे रात का सफर ही अच्छा लगता है। एक तो रात को ट्रैफिक कम होता है। दूसरा आप का एक दिन बच जाता है।

पटियाला से पठानकोट तक का 265 km का सफर पता ही नहीं लगा और ट्रैफिक भी कम था। पठानकोट से आगे शुरू हुआ पहाड़ी रास्ता। 25 km के बाद मुझे उल्टी की समस्या ने घेर लिया। उस के बाद तो अगले 2 घंटे में 3-4 बार गाड़ी को रुकवाना पड़ा उल्टी के लिए। उल्टी की गोली लेने के बाद सोने की कोशिश की गई। जिस से उल्टियाँ आगे तंग ना करें। हम सुबह 6.15 पर पठानकोट से 145 km आगे बग्गा (जिला ऊना) नामक स्थान के पास रुके। वहां पर दूकान के पास मणिमहेश यात्रियों के लिए चाय का भंडारा लगा हुआ था। इस यात्रा में पठानकोट से ही लंगर शुरू हो जाते हैं। हम सब ने कार से निकल कर चाय पी। यहाँ से भरमौर 35 km है। हम 7.30 के करीब भरमौर पहुँच गए।

भरमौर के बारे में

भरमौर बुधील घाटी में 7000 फ़ीट ऊंचाई में स्थित है। यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता और प्राचीन मंदिरों के लिए जाना जाता है। भरमौर की आस पास की समस्त भूमि में भगवान् शिव का निवास है। भरमौर का प्राचीन नाम ब्रह्मपुर था। इस स्थान को राजा मरु देव ने 530 ई. में अपनी राजधानी बनाया था और राज्य का नाम ब्रह्मपुर रखा। लगभग पांच सौ वर्षों तक यह ब्रह्मपुर नामक राज्य की राजधानी रहा। दसवीं शताब्दी में राजा साहिल वर्मा ने राज्य के विस्तार के साथ साथ चम्बा को अपनी राजधानी बनाया। अपनी जातीय परंपराओं, संस्कृति और प्राचीन इतिहास के साथ-साथ, भरमौर दिव्य वैभव की पूर्णता का निर्माण करती है।


भरमौर मणिमहेश यात्रा का प्रवेश द्वार या पहला पड़ाव कह सकते हैं। कुछ देर रुक कर फ्रेश हो कर हम भरमाणी माता के मंदिर की तरफ चल पड़े। भरमाणी माता के मंदिर जाने के दो रास्ते हैं। एक 3 km का पैदल रास्ता है। दूसरा रास्ता तक़रीबन 6 km का है। जहाँ पर 100 रुपए में आने जाने का टैक्सी द्वारा जाया जा सकता है। क्योंकि हम ने मणिमहेश की चढाई पैदल करनी थी, तो हम ने तय किया कि भरमाणी माता के मंदिर हम पैदल ही जायेंगे। तक़रीबन 9 बजे हम ने भरमाणी माता के दर्शन के लिए प्रस्थान किया। मणिमहेश से जाने से पहले भरमाणी माता के दर्शन करना जरुरी है नहीं तो यात्रा पूरी नहीं मानी जाती। भरमाणी माता का रास्ता मलकोता गाँव के बीच में से हो कर जाता है। हम तीनो उस सुंदर से गाँव की गलियों से निकलते हुए माता के मंदिर की तरफ चलते जा रहे थे। मंदिर की तरफ जाते हुए मैंने महसूस किया कि माया जी को चलने में मुश्किल हो रही है। अंजू जी उन का हाथ पकड़ कर उन्हें चढाई में सहयोग कर रही थी। धीरे धीरे हम चढाई चढ़ते हुए और आस पास के नज़ारे को देखते हुए हम 11 बजे के करीब माता के मंदिर पहुंचे। पूरा स्थान चीड़ और देवदार के पेड़ों से भरा हुआ है।

भरमाणी माता के बारे में

भरमाणी माता भरमौर के लोगों की सरंक्षक देवी है। उन्हें माँ दुर्गा का अवतार भी माना जाता है। इस  भूमि पर पहले भरमाणी देवी रहती थी। उस समय यहाँ पर जंगल हुआ करता था। एक दिन 84 सिद्ध भगवान शिव के साथ कैलाश कैलाश जाने के लिए भरमौर से गुजर रहे थे। उस समय भरमाणी माता वहाँ नहीं थी। भगवान् शिव ने 84 सिद्धों के साथ वहाँ पर अपना डेरा डाल लिया। शाम को जब माता भरमाणी जब आई तो उन्होंने अवधुत योगी को धूनी रमाए देखा। वो गुस्से में आ गई और वहाँ से चले जाने को कहा। तब भगवान् शिव ने कहा उन्हें रात को ठहरने दिया जाये, सुबह वो अपने आप बिना कोई नुक्सान पहुंचाए यहाँ से चले जाएंगे। 84 सिद्ध माता भरमाणी के व्यवहार से क्रोधित हो गए उन्होंने रातो रात मंदिर परिसर शिवलिंगो से भर दिया और मणिमहेश लिंग की स्थापना कर कैलाश के लिए आगे बढ़ गए। जब  माता भरमाणी  ने सुबह  परिसर में शिव लिंग देखे तो गुस्से से आग बबूला हो गई, जो बाद में भोले शंकर के आश्वासन के बाद शांत हुई। भोले नाथ के कहने पर ही माता नए स्थान पर रहने के लिए तैयार हुईं। उन्हें शिव जी से वरदान मिला कि जो भी यात्री मणिमहेश यात्रा में आयेगा उसे भरमाणी माता के मंदिर पहले आना होगा, नहीं तो उस की यात्रा सम्पूर्ण नहीं मानी जाएगी। ऐसी मान्यता सदियों से प्रचलित है। 

मंदिर तक पहुँचने से पहले वहाँ पर खाने पीने और प्रशाद की दुकाने खुली हुई थी। मंदिर के पास पहुँच कर हम ने वहाँ स्नान किया। मैंने वहां पर बने छोटे से कुंड में स्नान किया। पानी बहुत ही ठंडा था। लोग उस कुंड को तैर कर पार कर रहे थे। लेकिन पानी ठंडा होने के कारण मेरी हिम्मत ही नहीं हुई उस कुंड में जाने की। मैंने बाहर से ही एक बाल्टी से जल्दी जल्दी 3-4 बाल्टी पानी की अपने ऊपर डाल ली। तैयार हो कर हम ने माता के सुंदर रूप के दर्शन किये। दर्शन करने के बाद वही पर हम लोगो ने भंडारा खाया। भंडारा खाने के बाद जैसे ही हम वापिस चलने लगे तो माया जी ने पैदल चलने से मना कर दिया। अंजू जी और मैंने तय किया कि हम वापिस टैक्सी से चलते हैं। वही थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद हम टैक्सी से नीचे भरमौर आ गए। 

कहा जाता है कि भरमौर से भरमाणी माता के लिए रोप-वे बनाने के लिए बात चल रही है। राजनितिक दलों के नेता भी रोप-वे बनाने की घोषणाएं कर चुके हैं। देखो कब बनता है रोप-वे। वापिसी में टैक्सी वाला रास्ता बहुत ही खराब और कच्चा था। माया जी का टैक्सी से आना से एक बात तो तय थी कि वो मणिमहेश की चढाई पैदल तो नहीं करने वाली। 2 बजे हम भरमौर में थे। मेरा मन था कि हम आज ही हड़सर जा कर चढाई शुरू कर देते और एक किलोमीटर ऊपर हमारे जान पहचान वालो ने भंडारा लगा रखा था वही रात गुजारी जाये। पिछली बार जब मैं अपने परिवार के साथ आया था तब मैंने ऐसा ही किया था। खैर भरमौर आ कर हम ने एक होटल में दो कमरे लिए और 2 घंटे आराम किया गया। शाम को हम भरमौर की शान चौरासी मंदिर देखने चल दिए। चौरासी मंदिर शहर के केंद्र में स्थित है। भरमौर के लोगों का जीवन इन 84 मंदिरों के परिसर के आस पास ही केंद्रित है। चौरासी मंदिर के पास ही हेलिपैड बना हुआ है हेलीकाप्टर सेवा भरमौर से गौरी कुंड तक चलते हैं। 

चौरासी मंदिर के बारे में 


चौरासी मंदिर का नाम इस के परिसर में स्थित 84 छोटे बड़े मंदिरों के आधार पर रखा। पौराणिक कथाओं के अनुसार 84 योगियों ने ब्रह्मपुरा के राजा साहिल वर्मन के समय भ्रमण करते हुए आये थे। राजा वर्मन के आवभगत से अभिभूत हो कर योगियों ने राजा को 10 पुत्र रत्न की प्राप्ति का आशीर्वाद दिया था। राजा वर्मन ने 84 योगियों की याद में 84 मंदिरों का निर्माण करवाया था। तभी से इस को चौरासी मंदिर के नाम से जाना जाता है। एक दूसरी धारणा जो ऊपर भरमाणी माता के बारे में दी गई है। एक और मान्यता के अनुसार 84 योगियों ने देवी भरमाणी के प्रति सम्मान प्रगट नहीं किया तो उन्हें पत्थर में तब्दील कर दिया गया। यह पूरा मंदिर समूह उस समय की उच्च कला - संस्कृति का नमूना आज भी पेश करता है। चौरासी मंदिर का परिसर लगभग 7वी शताब्दी में बनाया गया। चौरासी मंदिर एक रमणीय, स्वच्छ और सुंदर दृश्य प्रदान करता है।


एक छोटे से बाजार से निकल कर हम शहर के केन्द्र में स्थित चौरासी मंदिर के परिसर में पहुंचे। सारा परिसर झालरों और रोशनियों से जगमगा रहा था। परिसर के आस पास छोटी बड़ी कई दुकाने थी। मंदिर परिसर में कई छोटे और बड़े मंदिर थे। एक तरह से सारा परिसर शिवमय बना हुआ था। मणिमहेश मंदिर (शिवा) 84 मंदिरों के केंद्र में खड़ा है। ये मंदिर यहाँ का प्रमुख मंदिर है। मंदिर के अंदर विशाल शिवलिंग बना हुआ है। इस के इलावा लक्षणा देवी मंदिर/भद्रकाली मंदिर बहुत पुराना है। कहा जाता है 680 AD में राजा मरू वर्मन ने इस मंदिर का निर्माण किया था। गणेश जी और नरसिम्हा मंदिर भी यहाँ के प्रमुख मंदिरों में आते हैं। इन सब के इलावा ख़ास तौर पर दो मंदिरों का जिक्र मैं जरूर करना चाहूंगा। 

नंदी बैल मंदिर मणिमहेश मंदिर के बिलकुल सामने ख़ास धातु से बने टूटे कान और पूंछ के साथ नंदी बैल जी की मूर्ति स्थित है। आमतौर पर हर शिव मंदिर के सामने नंदी बैल की प्रतिमा बैठी अवस्था में होती है, लेकिन यहाँ पर नंदी बैल की प्रतिमा चारों पैरों पर खडी अवस्था में है। कहा जाता है कि नंदी जी के पैरों के नीचे से रेंग कर निकल कर, फिर नंदी जी के कान में जो भी माँगो तो उसकी आवाज सीधी भगवान् भोले के पास जाती है। 

धर्मेश्वर महादेव मंदिर : एक अद्धभुत और बहुत ही सुंदर मंदिर है। राजा मरू वर्मन द्वारा धर्मेश्वर महादेव मंदिर में धर्मराज जी को उतरी (northern) कोने में एक सीट दी हुई है। इस मंदिर में एक खाली कमरा है जिसे चित्रगुप्त का कमरा माना जाता है। चित्रगुप्त जीवात्मा के कर्मो का लेखा जोखा रखते हैं। लोक कथाओं के अनुसार हर दिवंगत आत्मा को आगे बढ़ने के लिए धर्मराज की अंतिम अनुमति लेने के लिए यहाँ खड़ा होना पड़ता है। यहाँ पर मंदिर के पास कदमो के निशान बने हुए हैं। स्थानीय लोग इसे ढाई-पौड़ी कहते हैं, जिस का अर्थ है ढाई कदम। कहते हैं आत्माएं इन्ही क़दमों पर खड़ी होती हैं। चित्रगुप्त जीवात्मा के कर्मों का पूरा लेखा जोखा देते हैं।  फिर धर्मराज कर्मों के अनुसार आत्मा को अपना फैसला सुनाते हैं। एक तरह से यहाँ पर धर्मराज की अदालत लगती है। यह भी मान्यता है इस मंदिर के चारों तरफ स्वर्ण, रजत, तांबे और लोहे की अदृशय चार द्वार हैं। धर्मराज जी का फैसला आने के बाद यमदूत आत्मा को इन्ही द्वारों से आगे ले जाते हैं। गरूर पुराण में भी यमराज के दरबार में चार दिशाओं में चार द्वारों का उल्लेख किया गया है। पुजारी जी बताते हैं सदियों पूर्व यह मंदिर झाड़ियों से घिरा हुआ था। कोई भी इस तरफ आने की हिम्मत नहीं कर पाता था। पुजारी जी बताते हैं कि सब से पहले धर्मराज जी के मंदिर की पूजा होती है और चौरासी मंदिरों में स्थित सभी मंदिरों की पूजा समग्री भी इसी मंदिर से जाती है। स्थानीय लोगों का इस मंदिर में पूरा विश्वास है। यहाँ कई लोगो ने इन आत्माओं को महसूस भी किया हुआ है।
धर्मेश्वर महादेव 
हम ने भी सभी मंदिरों में भगवान् के दर्शन किये और इस मेले का आनंद लिया। मेरी नजर में चौरासी मंदिर देखने का असली मजा रात को ही है। दिन में वो बात नहीं होती। पिछली बार भी मैंने चौरासी मंदिर को अपने परिवार के साथ रात में ही देखा था। मंदिर परिसर से बाहर आ कर हम ने रात का भोजन किया और होटल में अपने कमरे में आ कर सो गए।

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सुबह सुबह बग्गा के सामने 

बग्गा में सुबह सुबह चाय 

रास्ते में हनुमान जी के दर्शन 

भरमौर का प्रवेश द्वार 

भरमाणी माता को जाते हुए अंजू जी और माया जी 

भरमाणी माता के जाते हुए गाँव की गलियाँ 

रास्ते से दिखते हुए नज़ारे 

ऐसी जगह घर हो तो क्या कहने 









सामने माता का मंदिर 

मंदिर से पहले दुकाने 


भरमाणी माता का मंदिर 



भरमाणी माता 



हेलिपैड 

चौरासी मंदिर में भोले नाथ का मंदिर 

मंदिर के अंदर शिवलिंग 

मंदिर की नक्काशी 

नंदी जी 



लक्षणा देवी जी 

 लक्षणा देवी जी का सुंदर मंदिर




परिसर में छोटे छोटे मंदिर 


नरसिंह मंदिर 

ये फोटो पहली यात्रा दौरान की है 


धर्मेश्वर महादेव 


पैरों के निशान जहाँ दिवंगत आत्माएं खड़ी होती हैं